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Friday, May 27, 2011

कारवाँ गुज़र गया , गुबार देखते रहे |

स्वप्न - झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से ;
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे ,
कारवाँ गुज़र गया , गुबार देखते रहे |

नींद भी खुली न थी की हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठें की जिंदगी फिसल गई
पात - पात झर गये कि शाख - शाख जल गई,
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई ,

गीत अश्क बन गए,
छन्द हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिये धुआँ - धुआँ पहन गये
और हम झुके - झुके ,
मोड़ पर रुके - रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया , गुबार देखते रहे |


क्या शबाब था कि फूल फूल प्यार कर उठा ,
क्या सुरूप था कि आईना देख सिहर उठा ,
इस तरफ जमीन और आसमाँ उधर उठा ,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा ,
एक दिन मगर यहाँ ,
ऐसी कुछ हवा चली ,
लुट गई कलि कलि कि घुट गई गली - गली , और हम लुटे - लुटे
वक्त से पिटे - पिटे
साँस कि  शराब का खुमार देखते रहे,
कारवाँ गुज़र गया , गुबार देखते रहे |

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद कि सँवार दूँ ,
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ ,
दर्द था दिया कि हर दुखी को प्यार दूँ ,
और सांस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर ,
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर - बिखर,
और हम डरे - डरे ,
नीर नयन में भरे ,
ओढ़कर कफ़न पड़े मजार देखते रहे,
कारवाँ गुज़र गया , गुबार देखते रहे |

मांग भर चली कि एक जब नई - नई किरन ,
ढोलके धुनक उठीं , ठुमक उठे चरन - चरन ,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन , चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा , बहक उठे नयन - नयन 
पर तभी जहर भरी,
गाज एक वह गिरी , 
पुंछ गया सिंदूर , तार - तार हुई चूनरी ,
और हम अजान से , 
दूर के एक मकान - से,
पालकी लिए हुए , कहार देखते रहे |
कारवाँ गुज़र गया , गुबार देखते रहे ||

- नीरज 


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