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Monday, October 14, 2013

जो तुम आ जाते एक बार



जो तुम आ जाते एक बार


कितनी करूणा कितने संदेश

पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग

आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार

हंस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग

आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार 


~ महादेवी वर्मा

Sunday, December 23, 2012

सिंघासन खाली करो की जनता आती हैं


सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती हैं,
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंघासन खाली करो की जनता आती हैं ।

जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मुरते वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहने वाली,
जब अंग अंग में लगे साँप हो चूस रहे,
तब भी न मुँह खोल दर्द कहने वाली ।

लेकिन, होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपकुल हो भृकुटी चढ़ती हैं,
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंघासन खाली करो की जनता आती हैं ।

हुँकारों से महलों की नीव उखड जाती,
साँसों के बल से ताज हम में उड़ता हैं,
जनता की रोके राह समय में ताब कहाँ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता हैं ।

सबसे विरत जनतंत्र जगत का आ पहुँचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंघासन तैयार करों,
अभिषेक आज रजा का नहीं, प्रजा का हैं,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो ।

आरती लिए तू किसे ढूंढ़ता हैं मुरख,
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में
देवता कही सड़कों पर मिट्टी तोंड रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में ।

फावड़े और हल राजदंड बनाने को हैं,
धूसरता सोने से शृंगार सजाती हैं,
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंघासन खाली करो की जनता आती हैं ।

रामधारी सिंह "दिनकर"

Monday, September 10, 2012

औरतें

कुछ औरतें अपनी इच्छा से
कुँए में कूद कर जान दी थी
ऐसा
पुलिस के रेकार्डो में दर्ज है
और कुछ औरतें
अपनी इच्छा से चिता में जल कर मरी थी
ऐसा धरम की किताबों में लिखा है
मैं कवि हूँ
कहता हूँ
क्या जल्दी है
मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को
एक ही साथ औरतो की
अदालत में तलब कर दूंगा
और
बीच की सारी अदालतों को मंसूह कर दूंगा
मैं उन दावों को भी मंसूह कर दूंगा
जिन्हें श्रीमानों ने औरतो
और बच्चों के खिलाफ पेश किये हैं
मैं उन डिक्रियों को निरस्त कर दूंगा जिन्हें लेकर फौजें और कुनबा चलते हैं
मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा
जिन्हें दुर्बल ने भुजबल के नाम किये हैं
मैं उन औरतो को
जो अपनी मर्जी से कुएं में कूद कर
और
चिता में जल कर मरी हैं
फिर से जिंदा कर दूंगा
और उनके बयानों को दोबारा
कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई
कि कहीं कोई चूक तो नहीं हो गयी
क्योंकि
मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने एक बित्ते के आँगन में
अपने सात बित्ते की देह को
ताजिंदगी समोए रही
और कभी भूलकर भी
बाहर की तरफ झाँका नहीं
और जब बाहर निकली
तो औरत नहीं
उसकी लाश निकली
जो खुल्ले में पसर गयी है
मामेदिनी की तरह
एक औरत की लाश
धरती माता की तरह होती है दोस्तों
जो खुल्ले में पसर जाती है
थानों से लेकर अदालतों तक
मैं देख रहा हूँ की जुर्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है
चन्दन चर्चित मस्तक को उठाये हुए पुरोहित
और तम्बू से लैश सीनों को फुलाये हुए सिपाही
महाराज की जय बोल रहे हैं
वे महाराज जो मर चुके हैं
और महारानियाँ सती होने की तैयारियां कर रही हैं
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी तो नौकरानियां क्या करेंगी?
इसीलिए वे भी तैयारियां कर रही हैं
मुझे महारानियो से ज्यादा चिंता नौकरानियों की होती है
जिनके पति अभी जिंदा हैं
और, बेचारे रो रहे हैं
कितना ख़राब लगता है
एक औरत को अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना
जबकि मर्दों को रोती हुई औरतों को मारना भी ख़राब नहीं लगता
औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं
औरते और जोर से रोती हैं, मरद और जोर से मारते हैं
औरतें खूब जोर से रोती है,
मरद इतने जोर से मारते हैं कि वो मर जाती हैं!
इतिहास में वो पहली औरत कौन थी
जिसे सबसे पहले जलाया गया
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही होगी मेरी माँ रही होगी
लेकिन मेरी चिंता है
कि भविष्य में वह आखिरी औरत कौन होगी
जिसे सब से अंत में जलाया जायेगा
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और मैं ये नहीं होने दूंगा!

विद्रोही जी 

Monday, May 28, 2012

क्या पूजन क्या अर्चन रे!

 
क्या पूजन क्या अर्चन रे!
उस असीम का सुंदर मंदिर
मेरा लघुतम जीवन रे!
मेरी श्वासें करती रहतीं
नित प्रिय का अभिनंदन रे!
पद रज को धोने उमड़े
आते लोचन में जल कण रे!
अक्षत पुलकित रोम मधुर
मेरी पीड़ा का चंदन रे!
स्नेह भरा जलता है झिलमिल
मेरा यह दीपक मन रे!
मेरे दृग के तारक में
नव उत्पल का उन्मीलन रे!
धूप बने उड़ते जाते हैं
प्रतिपल मेरे स्पंदन रे
प्रिय प्रिय जपते अधर ताल
देता पलकों का नर्तन रे!
- महादेवी वर्मा

Saturday, December 17, 2011

आई में आ गए



सीधी नजर हुयी तो सीट पर बिठा गए।
टेढी हुयी तो कान पकड कर उठा गये।

सुन कर रिजल्ट गिर पडे दौरा पडा दिल का।
डाक्टर इलेक्शन का रियेक्शन बता गये ।

अन्दर से हंस रहे है विरोधी की मौत पर।
ऊपर से ग्लीसरीन के आंसू बहा गये ।

भूंखो के पेट देखकर नेताजी रो पडे ।
पार्टी में बीस खस्ता कचौडी उडा गये ।

जब देखा अपने दल में कोई दम नही रहा ।
मारी छलांग खाई से “आई“ में आ गये ।

करते रहो आलोचना देते रहो गाली
मंत्री की कुर्सी मिल गई गंगा नहा गए ।

काका ने पूछा 'साहब ये लेडी कौन है'
थी प्रेमिका मगर उसे सिस्टर बता गए।।

- काका हाथरसी




Sunday, July 10, 2011

खिलौना



' मैं तो वही खिलौना लूँगा '
मचल गया दीना का लाल -
' खेल रहा था जिसको लेकर
राजकुमार उछाल - उछाल | '

व्यथित हो उठी माँ बेचारी -
' था सुवर्ण - निर्मित वह तो !
खेल इसीसे लाल - नहीं है
राजा के घर भी यह तो ! '

राजा के घर ! नहीं नहीं माँ
तू मुझको बहकाती है ,
इस मिट्टी से खेलेगा क्यों
राजपुत्र तू ही कह तो | '

फेंक दिया मिट्टी में उसने
मिट्टी का गुड्डा तत्काल ,
' मैं तो वही खिलौना लूँगा ' --
मचल गया दीना का लाल |

' मैं तो वही खिलौना लूँगा '
मचल गया शिशु राजकुमार , -
वह बालक पुचकार रहा था
पथ में जिसको बारबार |

' वह तो मिट्टी का ही होगा ,
खेलो तुम तो सोने से | '
दौड़ पड़े सब दास - दासियाँ
राजपुत्र के रोने से |

' मिट्टी का हो या सोने का ,
इनमें वैसा एक नहीं ,
खेल रहा था उछल - उछल कर
वह तो उसी खिलौने से | '

राजहठी ने फेंक दिए सब
अपने रजत - हेम - उपहार ,
' लूँगा वही , वही लूँगा मैं | '
मचल गया वह राजकुमार |

- सियारामशरण गुप्त


Saturday, July 2, 2011

एक बूँद



ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।

- अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’