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Sunday, July 10, 2011

खिलौना



' मैं तो वही खिलौना लूँगा '
मचल गया दीना का लाल -
' खेल रहा था जिसको लेकर
राजकुमार उछाल - उछाल | '

व्यथित हो उठी माँ बेचारी -
' था सुवर्ण - निर्मित वह तो !
खेल इसीसे लाल - नहीं है
राजा के घर भी यह तो ! '

राजा के घर ! नहीं नहीं माँ
तू मुझको बहकाती है ,
इस मिट्टी से खेलेगा क्यों
राजपुत्र तू ही कह तो | '

फेंक दिया मिट्टी में उसने
मिट्टी का गुड्डा तत्काल ,
' मैं तो वही खिलौना लूँगा ' --
मचल गया दीना का लाल |

' मैं तो वही खिलौना लूँगा '
मचल गया शिशु राजकुमार , -
वह बालक पुचकार रहा था
पथ में जिसको बारबार |

' वह तो मिट्टी का ही होगा ,
खेलो तुम तो सोने से | '
दौड़ पड़े सब दास - दासियाँ
राजपुत्र के रोने से |

' मिट्टी का हो या सोने का ,
इनमें वैसा एक नहीं ,
खेल रहा था उछल - उछल कर
वह तो उसी खिलौने से | '

राजहठी ने फेंक दिए सब
अपने रजत - हेम - उपहार ,
' लूँगा वही , वही लूँगा मैं | '
मचल गया वह राजकुमार |

- सियारामशरण गुप्त


Saturday, July 2, 2011

एक बूँद



ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।

- अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’